एक नजदीकी व्यक्ति द्वारा लिखा गया यात्रा वृतांत :-
एक श्राद्ध में शामिल होने के लिए मुझे दिल्ली से पटना आना पड़ा। पटना इन दिनों चुनावी रंग में रंगा है। अब चुनाव से मेरा क्या लेना देना? एयरपोर्ट से होटल तक पूरा शहर तरह-तरह के चुनावी पोस्टरों से पटा पड़ा है। कहीं लिखा है, “अबकी बार, नीतीशे कुमार” तो कहीं लिखा है, “बदलेगा बिहार, बदलेगी सरकार।”
सारे पोस्टर ठीक हैं। पर एक पोस्टर देख कर मैं ठिठक गया।
उस पोस्टर पर लिखा है, “अच्छे दिन का सपना देकर तुम्हें मूर्ख बनाया है, गरीबों बदला ले लेना, जिसने दुख पहुंचाया है।”
पोस्टर लालू यादव और राबड़ी यादव की ओर से है। मैंने अपनी गाड़ी रोकी और खड़ा हो गया वहीं किनारे। बहुत देर सोचता रहा…
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मेरे पिताजी पटना में रहते थे। मेरा जन्म इसी शहर में हुआ था। यह शहर हिंदुस्तान के तमाम बड़े और खूबसूरत शहरों में से एक हुआ करता था। यहां के स्कूल और कॉलेज के नाम हिंदुस्तान के बेहतरीन स्कूल और कॉलेज में शुमार हुआ करते थे। पटना साइंस कॉलेज, पटना कॉलेज और पटना विमेंस कॉलेज दिल्ली के स्टीफेंस कॉलेज और कोलकाता के प्रेसिडेंसी कॉलेज से कम नामी नहीं थे। पटना इंजीनियरिंग कॉलेज का नाम देश भर में शान से लिया जाता था। बिहार के सरकारी जिला स्कूल में पढ़ने वाला बच्चा देश का पहला राष्ट्रपति बना था।
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पहले पटना की सड़कें साफ और सुंदर हुआ करती थीं। पटना मेडिकल कॉलेज देश में एक जाना माना मेडिकल कॉलेज और अस्पताल हुआ करता था, जिसमें पढ़ाई के बाद सीधे लंदन में एफआरसीएस और एफआरसीपी में दाखिला मिलता था।
पहले पटना रेलवे स्टेशन पर उतरते हुए लगता था कि किसी बड़े शहर में चले आए हैं। यहां अशोक, मोना, रिजेंट न जाने कितने सिनेमा हॉल हुआ करते थे। अशोक सिनेमा हॉल को राजधानी का गौरव कहते थे। यहां स्टेशन के पीछे पाल होटल हुआ करता था, जिसका खाना खाने पता नहीं कहां-कहां से लोग आते थे। मेरे मौसा एक बार भोपाल से पटना आए थे, तो किसी ने उनसे कहा था कि पिंटू के रसगुल्ले लेते आइएगा। मौसा जी मेरे साथ पिंटू होटल से रसगुल्ले लेने गए, तो एक-एक करके चार गटक गए। कहने लगे इतना फ्रेश रसगुल्ला कभी खाया ही नहीं।
इधर कई सालों से मैं पिंटू की दुकान पर नहीं गया। पर मुझे पता है कि अब उसके छेने के स्वाद में छल समा गया होगा।
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मैं यादों में डूबा था।
तब पटना में रात नौ से बारह का शो देख कर हम रिक्शा पकड़ते थे और घर चले आते थे। कभी डर नहीं लगता था कि कोई लूटपाट हो जाएगी। मेरी बहनें अकेले बाज़ार चली जाती थीं, सिनेमा देख आया करती थीं। तब यह शहर मां-बहनों का शहर था। कोई अनजान लड़की भी किसी को भैया शब्द से संबोधित कर देती थी, तो उसके मायने होते थे।
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फिर पता नहीं कैसे बिहार में जयप्रकाश नारायण का आंदोलन शुरू हो गया। आंदोलन इंदिरा गांधी के खिलाफ था। इंदिरा गांधी दिल्ली में रहती थीं, पर जयप्रकाश नारायण ने उनसे लड़ने के लिए बिहार को चुना। छात्रों से अपील कर दी कि तुम स्कूल-कॉलेज छोड़ कर आंदोलन करो। यह उन छात्रों के लिए बहुत बड़ा मौका था, जिनका दिल पढ़ने-लिखने में नहीं लगता था, जो मटरगश्ती किया करते थे। उन्होने स्कूल-कॉलेज बंद करा दिए कि जेपी ने कहा है। उसके बाद बिहार में पढ़ाई बंद हो गई। जेपी ने तब समय की मांग कह कर छात्र आंदोलन की अपील की थी, इसके राजनीतिक मायने चाहे जो रहे हों, पर निखट्टू और बदमाश छात्रों ने जेपी आंदोलन की आड़ में न पढ़ेंगे और न पढ़ने देंगे की नीति अपना ली।
बिना पढ़े उनके पास मौका आ गया था राजनीति करने का। उन लोगों ने यहां वर्ग भेद पैदा किया। उन लोगों ने खुद को चमकाने के लिए भोले-भाले लोगों का सहारा लिया, उनकी भावनाओं से खेला। उन्हें उनकी जाति का अहसास कराया। उन्हें समझाया कि देखो वो अंग्रेजी बोलने वाले लोग तुम्हें नीचा दिखाते हैं। तब बिहार के स्कूलों में देश के तमाम स्कूलों की तरह हिंदी, अंग्रेजी सब पढ़ाई जाती थी। पर उन लोगों ने बिहार के सिलेबस से अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म कराई। गरीबों को भड़काया। मुझे जितना याद है अमीर और गरीब के मन में एक दूसरे के लिए ऐसी नफरत नहीं थी। कुछ लोग बेहतर स्थिति में थे, कुछ सामान्य स्थिति में। पर ऐसा ही सब जगह होता है, सब जगह था।
पर जेपी आंदोलन से निकले लोगों ने खुल कर लोगों की भावनाओं से खेला।
बिहार के लोगों के मन में जबरन बिठाया गया कि तुम अगड़े हो, तुम पिछड़े हो। तुम ऊंची जाति के हो, तुम नीची जाति के हो। जो परिस्थिति आजादी के बाद देश की थी, वही बिहार की थी। वो स्थिति बदल रही थी। वो बदल भी जाती।
पर बदलने से पहले उसे भड़काया गया। भड़का कर उसे कैंसर बनाया गया।
इन लोगों ने सामाजिक न्याय के नाम पर चंद्रगुप्त मौर्य और सम्राट अशोक की नगरी को धीरे-धीरे गंदा करना शुरू किया। खुद को प्रजा के लायक नहीं बना पाए, तो प्रजा को अपने हिसाब से बना लिया। उन्होंने लोकतंत्र में वोट की आबादी को अपना हथियार बना लिया। ऐसी परिस्थितियां पैदा कीं कि संजय सिन्हा जैसे लोग बिहार छोड़ कर दूर कहीं पढ़ने चले जाएं।
बचपन में मैं एक बार जेपी से मिला था। जेपी उदास थे। वो समझ गए थे कि उनके भक्त अब उन्हें देवता बना देंगे। उनकी तस्वीर पर माला चढ़ा कर उनकी पूजा करेंगे लेकिन कोई उनके असली सिद्दांत को न समझा है, न समझने की जहमत उठाएगा। जेपी अपने अंतिम दिनों में समझ गए थे, उन्होंने इंदिरा गांधी के खिलाफ जिनकी मदद ली थी, उन लोगों ने दरअसल उन्हीं का इस्तेमाल कर लिया है।
जेपी आखिरी दिनों में मौन हो गए थे। देवता हो गए थे।
बिहार तब पिछड़ा प्रदेश नहीं था, उसे धीरे-धीरे पिछड़ा बनाया गया। बिहार तब असुरक्षित नहीं था, उसे असुरक्षित बनाया गया। जिन हुक्मरानों ने बिहार के बच्चों को अंग्रेजी नहीं पढ़ने के लिए उकसाया, उन्हीं हुक्मरानों ने अपने बच्चों को बिहार से बाहर पढ़ाया। जिन लोगों ने अपनी गरीबी का रोना रो कर सत्ता पर कब्जा किया, वही लोग आज फिर यह कह कर अपने वोटरों को गुमराह कर रहे हैं कि गरीबों, तुम बदला लेना।
गरीबों, तुम किससे बदला लोगे? पिछड़ों, तुम किससे बदला लोगे?
उन्हीं से जिनकी सरकार यहां बीस साल रही? आज से 68 साल पहले अंग्रेजों की सरकार थी, तो क्या उनसे बदला लोगे?
मैं नेता नहीं हूं। मैं राजनीति नहीं समझता, मैं राजनीति समझाना भी नहीं चाहता। पर क्योंकि बिहार मेरी जन्मभूमि है, मैं पटना में पैदा हुआ हूं, इसलिए मुझे अफसोस है कि बिहार की जनता सचमुच बहुत भोली है, वो हर बार झांसे में फंस जाती है। वो हर बार इमोशनल फूल बन जाती है।
मुझे डर है कि वो फिर इमोशनल फूल बनने जा रही है।
चुनाव जब विकास, शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य जैसे मुद्दे को छोड़ कर लड़ा जाता है, तो उसके नतीजे भले किसी के हित में जाएं, जनता के हित में नहीं होते।
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पटना के मौर्य होटल में पत्रकारों और नेताओं का जमावड़ा लगा है। कल लिफ्ट में मुझे एक छुटभैये नेता मिल गए, कहने लगे कि उन्हें बहुत अफसोस है कि उन्हें इस बार टिकट नहीं मिला। मिला होता तो जनता की सेवा करते।
मैं मुस्कुराया। मन ही मन कहा कि जनता की सेवा करने के लिए टिकट क्यों चाहिए?
जिन्हें टिकट की दरकार होती है, वो दरअसल सेवा करना नहीं, अपनी सेवा करवाना चाहते हैं। सेवा करने वाले टिकट की दरकार नहीं रखते।
जिन्हें जनता से प्यार होता है, वो जनता को जोड़ते हैं, भड़काते नहीं। भड़काने वाले राजनीति की भट्ठी पर अपनी लिट्टी सेंकते हैं, और बचे हुए अंगारे जनता की ओर उछालते हैं ।
Writer: Sanjay Sinha